By – Waseem Raza Khan
निर्माता कंपनी का फिल्म ‘धुरंधर’ को एक उच्च-दांव वाली स्पाई थ्रिलर बनाने का इरादा था, लेकिन अफसोस की बात है कि यह अपने मुख्य उद्देश्य से भटककर एकतरफा प्रचार में तब्दील हो गई. पाकिस्तान, आईएसआई, वहाँ की गैंग और मुसलमानों को नकारात्मक रूप से दिखाने के जुनून में कहानी और स्क्रीनप्ले में जो कमियां रह गई हैं, उन पर निर्देशक का ध्यान ही नहीं गया. फिल्म की सबसे बड़ी विफलता इसके नायक, अंडरकवर एजेंट रणवीर सिंह के किरदार में है. फिल्म पूरी की पूरी पाकिस्तान पर आधारित है और भारत का अंडरकवर एजेंट रणवीर सिंह का किरदार अत्यंत फीका पड़ गया है. रणवीर को पाकिस्तान में भारत के हितों की रक्षा करनी थी, लेकिन वह अपनी पहचान और उद्देश्य को भूलकर लगभग पूरी तरह से स्थानीय गैंगस्टर, रहमान डकैत, के जीवन का हिस्सा बन जाता है, वह न सिर्फ उस गैंग का हिस्सा बन जाता है, बल्कि डकैत की साली से शादी भी कर लेता है. एजेंट पाकिस्तान में रहकर भी भारत पर होने वाले हमलों को रोकने में लगभग पूरी तरह विफल रहता है. वह केवल भारत के खिलाफ हो रही गतिविधियों को देखता रहता है, जबकि उसे रहमान डकैत से ध्यान कम करके अपनी जिम्मेदारी पर ज्यादा ध्यान देना था. उसके किरदार के अंदर भारतीय होने का जोश केवल एक या दो सीन में ही दिखाई देता है, जैसे कि मुंबई हमले के समय जब वह भावनात्मक रूप से प्रेरित होता है. बाकी समय, वह पूरी तरह से एक पाकिस्तानी डकैत की तरह व्यवहार करता है. लेखक और निर्देशक इस बात को स्थापित करने में असफल रहे कि रणवीर, रहमान डकैत का साथह होते हुए भी, कैसे चुपचाप भारत के लिए महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी इकट्ठा कर रहा था या हमलों को रोकने की योजना बना रहा था. फिल्म में केवल एक बार उसे मुंबई हमले की योजना का संदेश पहुंचाते हुए दिखा गया है, वो भी तारीख गलत हो जाने के कारण फेल हो जाता है. फिल्म पूरी की पूरी पाकिस्तान के आतंक से भरी है और मुसलमानों को बेरहम और खराब दिखाने के जोश में कहानी के लेखक और निर्देशक भारत की साइड को मजबूत दिखाना ही भूल गए. फिल्म का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी गैंग, आईएसआई के क्रूर मंसूबों, और मुसलमानों के हिंसक चित्रण पर खर्च हो जाता है. यह चित्रण इतना एकतरफा और अतिरंजित है कि यह कहानी के संतुलन को बिगाड़ देता है. भारतीय अंडरकवर ऑपरेशन का असली लक्ष्य और उसकी कार्यप्रणाली स्क्रीनप्ले में मजबूती से स्थापित नहीं हो पाती. ऐसा लगता है जैसे भारतीय एजेंट केवल पाकिस्तान की क्रूरता का एक निष्क्रिय गवाह है, न कि उसे रोकने वाला सक्रिय खिलाड़ी. एजेंट पाकिस्तान में रहकर भी हमले नहीं रोक पाया, जो उसकी मिशन की सफलता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है. यह दर्शाता है कि लेखक का ध्यान ‘पाकिस्तान कितना बुरा है’ इस पर इतना अधिक था कि वह ‘भारती गतिविधियों को मजबूत कैसे दिखाना है’ इस पहलू को भूल गया. यह एक और बड़ी प्रोडक्शन चूक है कि जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने हिंदी फिल्म का प्रमाण दे दिया, बेखयाली में ये फिल्म उर्दू भाषा में बन गई. फिल्म के संवाद, शब्दावली और उच्चारण में हिंदी की तुलना में उर्दू का प्रभुत्व बहुत अधिक है. यह भाषा का चुनाव पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के लिए यथार्थवादी हो सकता है, लेकिन यह फिल्म को हिंदी भाषी मुख्यधारा के दर्शकों से कुछ हद तक काटता है और प्रोडक्शन हाउस की ओर से भाषा के चयन पर ध्यान न देने की बात को उजागर करता है. इस फिल्म में सेंसर बोर्ड का फिल्म में एक बड़ा रोल भी सामने आता है. हर आतंकी सीन और बेरहमी से मारधाड़ और मौत देने वाले सीन को भी सेंसर बोर्ड ने आसानी से पास कर दिया है, जबकि अन्य फिल्मों के लिए बोर्ड बहुत बारीकी से फिल्म की छानबीन करता और निर्माता का नुकसान करता है. यह विरोधाभास सवाल खड़ा करता है कि क्या यह फिल्म एक विशेष एजेंडा को आगे बढ़ा रही थी, जिसके कारण उसे अन्य फिल्मों की तुलना में स्क्रीनिंग में अधिक छूट मिली. बेरहम हिंसा और भयावह चित्रण को बिना आपत्ति के पास करना, सेंसर बोर्ड की स्थापित नैतिकता और नीतियों के विपरीत प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि निर्माता-निर्देशक को भी पता चल गया है कि उनसे फिल्म बनाने में बहुत बड़ी गलती हो गई है और ‘धुरंधर’ पूरी तरह से एक पाकिस्तानी फिल्म बन गई है जिसमें भारत के लिए बहुत कम जगह बची है. इस गलती को छिपाने के लिए, केवल अक्षय खन्ना के अभिनय और एंट्री या डांस पर फिल्म देखने वालों का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है. हालांकि, अक्षय खन्ना के अभिनय में भी ऐसा कुछ ‘खास’ नहीं देखा गया जो पूरी फिल्म की कमजोर कहानी को संभाल सके. यह प्रचार की एक हताश कोशिश लगती है. कहा जा सकता है कि ‘धुरंधर’ अपने विषय की गंभीरता को संभाल नहीं पाई. यह एक स्पाई थ्रिलर के रूप में विफल हो गई है क्योंकि यह अपने नायक के मिशन को पृष्ठभूमि में धकेल कर, एक अतिरंजित और एकतरफा दुश्मन के चित्रण पर ध्यान केंद्रित करती है. कहानी में संतुलन की कमी, कमजोर स्क्रीनप्ले और भारतीय एजेंट के उद्देश्यहीन होने से यह फिल्म केवल पाकिस्तान में फैले आतंक की एक लंबी, धीमी डॉक्यूमेंट्री बनकर रह गई है. फिल्म की कहानी एक नहीं बल्कि दो तरीकों से और मजबूत लिखी जा सकती थी जिसमें भारती साईड को मजबूत दिखाया जा सकता था, रणवीर सिंह के किरदार को भी रहमान डकैत से ऊंचा किया जा सकता था, लेकिन लेखक रहमान को हीरो दिखाता रह गया और क्लाईमेक्स में उसकी मौत भी पाकिस्तानी पुलिस के हाथों ही करवा दी, अगर धुरंधर का दूसरा हिस्सा बनाने की निर्माताओं की तैयारी होगी तो न ही बनाई जाए तो बेहतर होगा क्योंकि स्क्रीनप्ले में वो मजबूती तब भी नहीं आएगी क्योंकि पाकिस्तानी आतंकवाद कहानी का मजबूत हिस्सा बना दिया गया है, अब आगे भी भारतीय गतिविधियों वाला हिस्सा कमजोर ही रहेगा, क्योंकि रणवीर सिंह के निशाने पर जितने भी लोग हैं सब पाकिस्तानी हैं. यहां एक बात और साफ नहीं होती कि स्पाई मिशन भारत के लिए पाकिस्तान की जासूसी करना है या वहां के गैंगवार को खत्म करना?




