By – Waseem Raza Khan (Chief Editor)
वर्षों पहले मालेगांव शहर के कुछ नवजवानों ने बॉलिवूड की फिल्मों के स्पूफ बनाने का एक नया चलन शुरू किया था. वो दौर सोशल मीडिया का तो नहीं था लेकिन विडियो थिएटर पर फिल्में दिखा कर मालेगांव के वो युवा तो अभिनेता, लेखक और निर्देशक बनने का शौक रखते थे कम खर्च और किसी प्रकार के साधन के बिना वीएचएस पर फिल्में बनाने लगे थे. मालेगांव की इस फिल्मकारी के शौक पर देश और दुनिया के कई टीवी चैनकों और दस्तावेजी फिल्म बनाने वालों ने कई प्रकार की शोध रील्स बनाई, मालेगांव के युवाओं के फिल्म बनाने के शौक पर बनी कई फिल्में देसी और विदेशी फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाई गईं, कुछ को एवार्ड भी मिले और यहां के फिल्मी शौक रखने वाले कलाकारों को पूरी दुनिया में सराहना मिलने लगी. कुछ वर्षों के बाद सीडी और डीवीडी का दौर आया. ऐसे में कुछ छोटी कंपनियों ने मालेगांव की सस्ती और छोटी फिल्मों को बाजार में उतारा, इसी बीच मालेगांव के फिल्म बनाने वालों में फिल्मों के स्पूफ को छोड कर एक नया ट्रेंड चल निकला और वो था खानदेशी उच्चारण में फिल्म बनाना. इन्हें किसी प्रकार फिल्म तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह केवल कॉमिक वीडियोज की हुआ करती थीं, इस दौर में मालेगांव के फिल्म बनाने वालों ने केवल कॉमेडी करने और फोहड भाषा का उपयोग करके लोगों को हंसाने का काम किया. इन फिल्मों को भाषा को न हम हिंदी कह सकते हैं और न ही उर्दु में इसे शामिल किया जा सकता है, यह एक क्षेत्रीय उच्चारण जिसे खानदेशी कहा जाता है बनाई जाने लगी और केवल हंसी पैदा करने के लिए विभिन्न प्रकार के तमाशे किए जाने लगे, इन सीडी और डीवीडी की क्षेत्रीय मांग केवल इसलिए बढती चली गई क्योंकि इसमें भाषा को तोड मरोड कर पेश किया गया और कहानी के पद्धत और बारीकियों के बहुत दूर रह कर केवल तमाशेबाजी की जाती रही और इन्हें पसंद करने वालों में यह सीडी और डीवीडी बिकती रही और शौकीन जनूनियों को कुछ पैसे भी मिलने लग गए. यह सिलसिला बाद में सोशल मीडिया पर शुरू हो गया. मालेगांव में बन्ने वाली कुछ ही फिल्मों को फिल्म कहा जा सकता है जो कहानी और फिल्मसाजी के उसूलों पर कुछ खरी उतरती हैं, बाकी 90 प्रतिशत काम केवल फोहड पन और भाषा की ऐसीतैसी करते ही होता रहा है. पिछले दिनों एक ऐसा खानदेशी फोहड पन यूट्यूब पर देखने को मिला जिसे मुझे यह लेख लिखने पर मजबूर कर दिया जिसमें एक भद्दे मोटे अधेड उम्र के आदमी को लेडीज टॉप पहना कर उसे तृतीपंथी बनाया गया, उसका बडा पेट, काला रंग, अशलील कपडे पहले ही अशलीलता फैला रहे थे उसपर उसका गंदा सा अति भद्दा अभिनय उस किरदार को और गंदा कर रहा था. हालांकि यह सारा कंटेंट आज कल यूट्यूब, इन्सटाग्राम और दूसरे सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता है लेकिन यह गंदा पर, बेढंगे हंसी ठिठोले हमारी सभ्यता पर बुरा प्रभाव डालते हैं. सुना है खानदेशी स्पूफ को बच्चे बहुत पसंद करते हैं, अगर इन कंटेन्ट में इस प्रकार के गंदे किरदार या डॉयलॉग होंगे तो हम सोच सकते हैं बच्चों पर इसका परिणाम क्या हो सकता है. आप ने मालेगांव को मॉलीवूड का नाम तो दे दिया लेकिन जिस प्रकार के कंटेन्ट होने चाहिएं वो गायब हैं. फिल्म को फिल्म के उसूल से बनाया जाए, कहानी पूर्ण तरीके से अपने तकाजे पूरे करे, देखने वालों को पसंद आए और सीख मिले. दुनिया में कई ऐसी कहानियां हवा में घूम रही हैं जिन्हें साहित्य और फिल्मी उसूलों के अनुसार फिल्माया जा सकता है लेकिन मालेगांव वालों का गंदा और फोहड तरीका मालेगांव को बदनाम करने में एक बडा रोल निभा रहा है. किसी फिल्मकार पर बायोपिक बनना मॉलिवूड के लिए बहुत प्रशंसा भरा काम नहीं है, उस फिल्मकार की मेहनत और सोच ने उसे उस स्थान पर पहुंचाया जो सही भी था लेकिन जब तक मालेगांव वाले उनके कंटेन्ट में सही रंग नहीं भरते उन्हें कलाकार या फिल्मकार कहना गलत होगा. आखिर में कहता चलूं कि अगर ऐसा ही रहा तो मालेगांव में जिन लोगों से समाज सुधार मिशन शुरू किया है उन्हें मॉलिवूड को भी खत्म करना चाहिए, क्योंकि यह बात कहने में मुझे कोई भय या झिझक नहीं कि मॉलिवूड का कंटेन्ट समाज में बिगाड पैदा कर रहा है, फिल्में आप का शौक है तो आप बनाईए लेकिन उन फिल्मों से समाज को कुछ अच्छा देने का प्रयास कीजिए.