By – Waseem Raza Khan
8 सितंबर 2025 को महाराष्ट्र के अख़बारों और होर्डिंग्स पर एक ही चेहरा छाया रहा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का. शिवाजी महाराज की प्रतिमा पर पुष्प अर्पण करते हुए उनका बड़ा सा चित्र और उसके नीचे केवल दो शब्द “देवा भाऊ” बस. न कोई सरकारी योजना का उल्लेख, न कोई नीति की जानकारी, न कोई जनकल्याण का संदेश. सिर्फ़ नेता की इमेज चमकाने की कोशिश.
प्रश्न यह है कि आखिर इस तमाशे का खर्च किसने उठाया? सरकार कहती है कि इसमें राज्य का पैसा नहीं लगा. तो फिर यह करोड़ों रुपये कहां से आए? अगर यह किसी कॉरपोरेट घराने या उद्योगपति ने किया है तो सीधा सवाल है किस सौदे के बदले? कौन-सा एहसान उतारने के लिए जनता की नज़र में नेता को “भाऊ” बनाने का ठेका उठाया गया है?
यह सरकार या मुख्यमंत्री की पारदर्शिता नहीं, जनता को अंधेरे में ढकेलना है. लोकतंत्र में जनता का विश्वास पारदर्शिता पर टिका होता है. लेकिन यहां तो उल्टा खेल हो रहा है. एक ओर कहा जा रहा है कि सरकारी पैसा नहीं लगा, और दूसरी ओर यह नहीं बताया जा रहा कि पैसा आखिर आया कहां से. क्या यह जनता से वसूला गया टैक्स किसी और रास्ते से इस प्रचार में बहाया गया? क्या यह किसी कॉरपोरेट की ब्लैक मनी का सफेद चेहरा है?
ईडी और आयकर विभाग की चुप्पी क्यों?
यदि यह करोड़ों की रकम किसी निजी कंपनी या उद्योगपति ने दी है, तो उसकी पूरी जांच क्यों नहीं? ईडी, आयकर विभाग और चुनाव आयोग इस पर आंख मूंद कर क्यों बैठे हैं? जब सामान्य नागरिक की छोटी-सी लेनदेन पर भी नोटिस भेज दिए जाते हैं, तो इतना भारी भरकम खर्च किस खाते से आया यह जानने का हक जनता को है.
“देवा भाऊ” — जनता के लिए संदेश या सत्ता का नशा?
“देवा भाऊ” कह कर क्या यह जताने की कोशिश है कि मुख्यमंत्री अब केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि जनता के ‘भाऊ’ बन गए हैं? क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुख्यमंत्री की पहचान योजनाओं, विकास और जवाबदेही से नहीं होनी चाहिए, न कि चापलूस विज्ञापनों से? शिवाजी महाराज की प्रतिमा के सामने खड़े होकर अपनी छवि को जोड़ना क्या महान राजा का अपमान नहीं है?
जनता सवाल पूछ रही है कि यह विज्ञापन किसने और क्यों दिया? किस मद से करोड़ों रुपये खर्च हुए? यदि यह निजी पैसा है तो उस निजी निवेशक को बदले में क्या फायदा मिलने वाला है? और सबसे बड़ा सवाल क्या लोकतंत्र में जनता की मेहनत की कमाई नेताओं की इमेज चमकाने में लगनी चाहिए? “देवा भाऊ” विज्ञापन सिर्फ़ एक फोटो और नारे का खेल नहीं है, बल्कि यह सत्ता, पैसे और प्रचार के गठजोड़ की बदबूदार मिसाल है. जनता मूर्ख नहीं है. उसे पता है कि जब नेता अपनी छवि चमकाने के लिए ऐसे करोड़ों रुपये फूंक देजे हैं, तो आखिरकार उसका बोझ आम आदमी की जेब पर ही पड़ता है. अगर सच में पारदर्शिता है, तो तुरंत बताइए कि यह पैसा कहां से आया वरना जनता भी कहेगी यह सब दिखावा है, और “देवा भाऊ” दरअसल “धोखा भाऊ” साबित हो रहे हैं.