By – Waseem Raza Khan (Chief Editor)
हिंदी भाषा को लेकर मुंबई में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) और उद्धव ठाकरे की शिवसेना द्वारा दिए गए विवादित बयानों पर अक्सर कड़ी प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलती हैं। ये बयान आमतौर पर क्षेत्रीय गौरव, भाषा पहचान और राजनीतिक लाभ से जुड़े होते हैं। ये बयान अक्सर महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता को बढ़ावा देने पर केंद्रित होते हैं, जिसमें हिंदी भाषी आबादी को “बाहरी” या मराठी संस्कृति के लिए खतरा बताया जाता है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है क्योंकि मुंबई एक बहुभाषी शहर है जहाँ देश के विभिन्न हिस्सों से लोग रहते हैं और काम करते हैं। दोनों ही पार्टियाँ, MNS और शिवसेना (उद्धव गुट), मराठी मानुस (मराठी लोग) के नाम पर राजनीति करती रही हैं। ऐसे बयान देकर वे अपने पारंपरिक वोट बैंक को एकजुट करने और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश करती हैं। इस तरह के बयान अक्सर भाषाई आधार पर समाज को बांटते हैं, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच तनाव पैदा हो सकता है। यह राष्ट्रीय एकता और सौहार्द के लिए हानिकारक है। राजनीतिक दलों को अपनी बात रखने की स्वतंत्रता है, लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि उनके बयानों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। नफरत फैलाने वाले या विभाजनकारी बयान देना सामाजिक जिम्मेदारी के खिलाफ है। मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है और यहां देश के हर कोने से लोग आते हैं। भाषाई विवाद से शहर की छवि खराब होती है और यह निवेश और व्यापार के लिए भी प्रतिकूल हो सकता है। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। इस तरह के विवादित बयान कई कारणों से अनुचित हैं जैसे भारत एक बहुभाषी देश है और सभी भाषाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। किसी एक भाषा को दूसरी भाषा से श्रेष्ठ बताना या किसी भाषा के बोलने वालों को नीचा दिखाना राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समानता और बिना किसी भेदभाव के जीने का अधिकार देता है। भाषाई आधार पर भेदभाव करना या नफरत फैलाना संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। ऐसे बयान सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचाते हैं और विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास और शत्रुता पैदा करते हैं। ये बयान अक्सर अनावश्यक संघर्ष और विरोध प्रदर्शनों को जन्म देते हैं, जिससे कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। जब समाज भाषाई या क्षेत्रीय मुद्दों पर बंटा होता है, तो वह विकास और प्रगति पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता है। इसके बजाय, राजनीतिक दलों और नेताओं को समावेशिता, सहिष्णुता और सभी भाषाओं और संस्कृतियों के सम्मान को बढ़ावा देना चाहिए। मुंबई जैसे शहर में, जहां विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग सद्भाव से रहते हैं, भाषाई मुद्दों पर राजनीति करने से बचना चाहिए और ऐसे बयान देने से परहेज करना चाहिए जो विभाजनकारी हों।